मधुसूदन शर्मा
अज्ञानवश सामान्यजन भौतिक जगत को ही परमसत्य मान लेते हैं। मानो समस्त इंद्रियों को यथेच्छा भोग कर आनंद लाभ प्राप्त करना ही इनका उद्देश्य है। इनके लिए संसार सुख सागर है, परंतु कुछ विशिष्ट जन ऐसे भी होते हैं, जिनका मन संसार के मिथ्यातत्व में नहीं लगता। वे जीवन में क्षणभंगुरता नहीं, स्थिरता चाहते हैं। कोलाहल नहीं, शांति चाहते हैं। जो आवागमन नहीं, मोक्ष चाहते हैं। उन्हें निवृत्ति मार्ग आकर्षक लगता है। उनके लिए परमतत्व का साक्षात्कार ही अंतिम लक्ष्य होता है।
संत-महात्मा चेताते हैं कि ग्रंथों को पढ़ने मात्र से अपने को ज्ञानी समझने की गलती मत कर बैठना। शास्त्र कहते हैं, जिसने सब शास्त्रीय ज्ञान भी अर्जित कर लिया हो, अगर वह परमात्मा को नहीं जानता तो वह अज्ञानी ही है। और जिसने परमात्मा को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया।
सृष्टि के अंतिम यथार्थ ब्रह्मतत्व का साक्षात्कार बिना सद्गुरु के संभव नहीं है। जब किसी मुमुक्षु में ईश्वर साक्षात्कार की इच्छा अति प्रबल हो जाती है, तो प्रभु कृपा से उसे सद्गुरु मिल जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है- बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता। अर्थात बिना हरि कृपा के संत नहीं मिलते।
गुरु गीता में कहा गया है- गुरु वह है जो अपने शिष्य को अज्ञानता के अंधकार से सत्य के शाश्वत प्रकाश की ओर ले जाये। यहां गुरु शब्द मे ‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है दूर करना। जब ईश्वर की खोज में जाएं, तो गुरु बनाने से पहले चौकन्ना रहने की जरूरत है। आजकल अधिकतर आध्यात्मिक गुरु व्यापारी बन गए हैं। संत कबीर तथाकथित साधुओं के बारे में कहते हैं-
साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहि।।
अर्थात जो धन का लोभी साधु होगा, वह सदगुरु हो ही नहीं सकता।
संत कबीर गुरु बनाने से पहले सचेत करते हुए कहते हैं-
गुरु कीजिये जानि के, पानी पीजै छानि।
बिना बिचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि।।
अर्थात जिसे भी अपना गुरु बना रहे हैं, उसकी अच्छी तरह जांच परख कर लीजिए।
एक अन्य दोहे में संत कबीर ने कहा है-
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रांति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय।
अर्थात यदि कोई गुरु शिष्य की शंकाओं को ही दूर न कर सके, तो उस गुरु को त्यागने में ही भलाई है। यदि कोई गुरु भौतिक अथवा सांसारिक लाभ प्रदान करने का दावा करता है, तो समझ लीजिए उस गुरु में खोट है और वह त्याज्य है। चमत्कारिक शक्तियों का सार्वजनिक प्रदर्शन करने वाले व्यक्तियों से भी दूर ही रहना चाहिए। तो फिर सद्गुरु को कैसे पहचानें?
सद्गुरु मौन और एकांतप्रिय जीवन को सहज भाव से लेने वाले होते हैं। अहंकार से मुक्त पवित्रता, शांति, प्रेम और ज्ञान की प्रतिमूर्ति होते हैं।
शास्त्रों में गुरु स्तुति में सद्गुरु के लक्षणों की बहुत सुंदर व्याख्या की गयी है-
ब्रह्मानन्दं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्
भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि।।
‘ऐसे सद्गुरु, जो स्वयं ब्रह्मानन्दस्वरूप हैं, परम सुख देने वाले हैं, ज्ञान की मूर्ति हैं, हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों से रहित हैं, आकाश के समान निर्लेप है, नित्य हैं, विमल हैं, अचल हैं, निरन्तर साक्षी रूप हैं, भावातीत हैं, तीनों गुणों से परे हैं, को मैं नमन करता हूं।’
श्रीश्री परमहंस योगानंद शिष्यों के लिए आध्यात्मिक खोज के बारे में कहते हैं- ‘अपनी आध्यात्मिक खोज की शुरुआत में विभिन्न आध्यात्मिक पथों एवं गुरुओं का तुलनात्मक मूल्यांकन करना बुद्धिमानी है। परंतु जब आपके लिए नियत सद्गुरु आपको मिल जाए, जिनकी शिक्षाएं आपको अपने ईश्वरीय लक्ष्य तक पहुंचा सकती हैं, तब आपकी वह व्यग्र खोज बंद हो जानी चाहिये। आध्यात्मिक तृष्णा से पीड़ित व्यक्ति को अनिश्चित रूप से नित्य नये कुओं की तलाश नहीं करते रहना चाहिए, बल्कि उसे सबसे अच्छे कुएं पर जाकर नित्य प्रतिदिन उसके जीवनदायी जल का पान करना चाहिए।’
एक बार साधक को सद्गुरु का दिव्य सान्निध्य मिल गया और गुरु की शिक्षाओं में पूर्ण निष्ठा, आज्ञा पालन, सम्पूर्ण आत्मसमर्पण जैसे गुणों का पालन किया गया, तो साधक बहुत जल्दी आध्यात्मिक उन्नति करता है।
परमहंस योगानंद अपने गुरुदेव स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी के बारे में कहते हैं- ‘मेरे गुरु ने मुझे दिखा दिया कैसे अपने आप को ज्ञान की छेनी से तराशकर ईश्वर को ग्रहण करने योग्य मंदिर में रूपांतरित किया जा सकता है। प्रत्येक मनुष्य ऐसा कर सकता है, यदि वह दिव्य ज्ञान सम्पन्न गुरुओं के उपदेशों का पालन करें।’
संत कबीर भी कहते हैं-
गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट। अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।
अर्थात गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है। भीतर से हाथ का सहारा देकर, बाहर से चोट मार-मार कर और गढ़-गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकालते हैं।
गुरु महिमा पर गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई॥
भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भवसागर पार नहीं कर सकता।
संत कबीर भी गुरु महिमा का वर्णन करते हुए अपने दोहे में कहते हैं-
सब धरती कागद करूं, लेखनि सब बनराय।
सात समंद की मसि करूं, गुरु गुण लिखा न जाय॥
अर्थात सब पृथ्वी को कागज, सब वनों के पेड़ों को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।
श्रीमद्भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में अपने शिष्य अर्जुन को कहा-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
अर्थात सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणागत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
श्रीश्री परमहंस योगानंद भी ‘जर्नी टू सेल्फ रीयलाइज़ेशन’ में कहते हैं- ‘जब आप गुरु-शिष्य संबंध के सिद्धांतों पर अचल रहते हैं, तो अभ्यास का मार्ग अत्यंत सरल बन जाता है। तब आप पथभ्रष्ट नहीं हो सकते। माया आपको भटकाने का चाहे कितना ही प्रयत्न क्यों न करे, ईश्वर प्राप्त गुरु आपकी समस्या को जानता है और आध्यात्मिक पथ पर पुनः स्थिर होने में आपकी सहायता करता है। एक सद्गुरु आपके लिए इतना सब कुछ कर सकता है, यदि आप उसके साथ समस्वर रहते हैं।’
गुरु महिमा का गुणगान वेद, उपनिषदों, रामायण, गीता, श्री गुरु ग्रंथ साहिब आदि धर्मग्रंथों में किया गया है। महान साधु-संतों ने भी गुरु महिमा का वर्णन किया है…
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